Design a site like this with WordPress.com
Get started

समय समय की बात

समय समय की बात है ।
समय समय का जोर ।।
कभी मस्त पवन का झोका है ।
कभी कारी बदरी चहुंओर ।।

पलट रही हवा क्षण क्षण में ।
जैसे दिशाहीन व्यक्ति जीवन में ।।
नभ की ओर नज़र तू अटका
चलता जा अविचल , उसी ओर ।१।

राह पर मिलेंगे अच्छे बुरे प्रारब्ध ।
उन्हें देख ना होना स्तब्ध ।।
कदमों के जोर बढ़ा चढ़ा कर ।
कर देना गर्जना घनघोर ।२।

यदि पथ पर खोज पाओ धृति (धैर्य) ।
करना उससे घनिष्ठ मैत्री ।।
विवेक क्षीणता की स्थिति में ।
सहचर देगी साथ पुरजोर ।३।

यदि मिले पथ पर तुम्हे कीर्ति ।
ना बन जाना पूजा की मूर्ति ।।
निमित्त मात्र का किरदार भाँपना ।
वरना बन जाओगे शंख ढपोर ।४।

मस्तिष्क पटल पर बनती चलेंगी स्मृतियाँ ।
चह चहाएंगी मानो विचरण करती चिड़िया ।।
इन्हें हृदय के तल में सहेजना सीखो ।
अनंत तक रहोगे परम आनंद से सराबोर ।५।

समय … समय….. ……

©प्रखर

रावण का साक्षात्कार

विजया दशमी के अवसर पर ।
रावण का दमन अत्यावश्यक ।।
था वह प्रकाण्ड शास्त्र ज्ञाता ।
समान्तर था नीति पथ नाशक ।।

शपथ लें आज नीति पथ की ।
ना करें नकल अब गिरगिट की ।।

भीतर का रावण पहचानें ।
ऐसे ही धनुष को ना तानें ।।
आत्मावलोकन किये बिना ।
श्रीराम स्वयं को ना मानें ।।

©प्रखर

मोक्ष

When all curiosities and confusions in and about life comes to rest by the torch of consciousness, then slowly we feel unconstrained (not disconnected) from our outer self, that state of bliss is moksha.

Consciousness is, our satisfaction about justification of the reasons of happenings inside as well as around us, which gradually end our process of wondering about anything.

” यूं ही “

कुछ लिख जाऊं , ये सोच कर कलम उठाई है ।
बेचैनी है, व्यथा है , या फिर हूँ मैं कुछ गुम सा ।
सभा , आप (self) के साथ ही आज मैंने बिठाई है ।।
काफी भरा हुआ सा प्रतीत होता हूँ अंतर्मन से ।
जैसे सारी रात कम पड़ने वाली हो , बयां करने में ।
और ये मन भी कमबख्त कुछ साफ साफ कहता नहीं ।
क्या सोचूं ?? …. … … इस सोच में डूबा हूँ ।
या फिर,
इस उड़ते हुए ख्याल से बचने की फिराक में उलझा हुआ ।
.

.

खैर ,… अब जो भी हो …….. कोशिश जारी है सुलझाने की।।
आशा है ,किसी निष्कर्ष तक पहुँच पाने की ।।

“प्रखर”

“अमूल्य मित्र “

मित्र क्या है ??? , परछाई है ,
हाथ थाम ले , जब आगे खाई है ।।

आईना है दुर्गुणों को दिखलाने में ,
माहिर है उलझनों को सुलझाने में ।।

स्पष्टवादिता का जीता जागता उदाहरण है ,
अमूल्य है आपके लिए,
भले दुनिया के लिए साधारण है ।।

जश्न में चार चांद लगा देता है ,
दुख की घड़ी में ढांढस बंधा देता है ।।

ईश्वर की रचना है यह विचित्र ,
खुशनसीब हैं आप ,
यदि आप के पास हैं सच्चे मित्र ।।

— “प्रखर”

जज़्बे का जोर

क्या है जिंदगी, बस उलझनों की डोर है ।
एक सिरा हाथ में , दूसरा कहीं और है ।।
इन सब के बीच में, अनिश्चितता और है ।
उलझनों से बच निकलने की , आशा चहुंओर है ।।

प्रश्न जो उठते हैं मन में,
ढूंढता तू क्यों गगन में ।
झांक तू अपने ही अंदर,
पाएगा अविचल समंदर ।।
चीर कर निकला समंदर , तू वो गोताखोर है ।
अड़चनों को डगमगा दे, तुझ ही में वो हिलोर है ।।

आएगी पथ पर जो आंधी,
कल्पना जिसकी थी ना की ।
हौसलों की डोर से जो,
जज़्बे की एक गांठ बांधी ।।
ना हवा ने देखा ऐसा , योद्धा कोई और है ।
तेरे आगे टूटकर , हारा हवा का जोर है ।।

क्या है जिंदगी ….. बस उलझनों की डोर है ।।

“प्रखर”

अहम्

“मैं” के तम को करें खतम । ( मैं = Ego )
“वयम्” भाव का करें जतन ।
दशा अगर हो दुख पीड़ा की ।
कतई ना होगे तुम निर्जन ।।

कोई दूजा हो या हो करीब ,
धनधान्य हो या फिर गरीब ।
समभाव से सबसे रहने की ,
प्रभावशाली यह तरकीब ।
एकात्मवाद के पथ पर चल कर ,
तोड़ दें मन के सारे भ्रम …..
“मैं” के तम को करें खतम, “वयम्” . . . . .

अहम वह विष का प्याला है ,
पीकर बस बैर ही पाला है ।
इसकी पुनरावृत्ति कर के ,
जलती आत्मग्लानि की ज्वाला है ।
श्रेष्ठता सिद्धि की दौड़ में ,
कहता वह, “मैं ही सर्वप्रथम ” …
“मैं” के तम को करें खतम , “वयम्” . . . . .

©प्रखर