
तेरे चौखट पे

थोड़ा बुरा होना, कोई बुरी बात नहीं ।
उगता सूरज, लाल छटा है,
रेत बिछी है, सर्द हवा है ।।
लिपट रेत से , हवा ओढ़ कर,
Pure Bliss की यही दवा है ।।
❤️❤️ .
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✒️प्रखर
स्वतंत्रता का तात्पर्य, इस विषय पर विचार में ……..
© प्रखर
©प्रखर गौतम
One of my Favourite Shlok from Shrimad Bhagvad Geeta:
संजय उवाच :
एवमुक्त्वार्जुन: सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानस: ||47||
Arjun was in grief & this grief played a pivot role in connecting (योग) us to the need of Geeta. And that’s why the name of Chapter 1 has Suffix “योग”
अर्जुन विषाद योग
And we all are Yogis without a choice 🤷
✍️© प्रखर
Sun rays entering into beautifully dispersed clouds in the infinite sky, reflecting it’s beauty onto a Finite pond water.
Sometimes the Infinite needs finite to nourish and realise one’s beauty.
Similar is the case with Body and Soul, I think. 😊
© ✍️ Prakhar
नल के नीचे बूंद बूंद, या
सागर में आँखें मूँद मूँद,
सब दृष्टिकोण की क्रीड़ा है
जो ना समझे तो पीड़ा है ।।
सूर्य स्वयँ हो या किरणें
भिन्न है दोनों क्या ? बोलो,
दोनों में समरूप हैं गुण
बन्द बुद्धि के पट खोलो ।।
देह मात्र के स्वामी बन कर
पृथक कहाँ कुछ सूझेगा,
आत्मरूप की कठिन पहेली
भला कहाँ से बूझेगा ।।
यह आत्मा ही तो बूँद बूँद है
परमात्म से मिलती आँख मूँद है,
यह मिलन माँगता शक्ति है
पर अवरोधक आसक्ति है ।।
आध्यात्म के झिल्लड़ ऐनक से
यह अवरोधक मिट जाता है,
मनु योनि में आकर विवेक का
उपयोग तभी हो पाता है ।।
सत् , चित् , आनंद सभी
फलस्वरूप मिल पाता,
सही अर्थ में मनुष्य तब
सच्चिदानन्द कहलाता ।।
©प्रखर
घट-घट में श्रीराम बसे हैं
रग-रग में श्रीराम बसे हैं
दीन हीन की विरक्ति हरने ,
क्षीण क्षीण में शक्ति भरने ,
मानवता फिर जीवित करने ,
अवधपुरी में साज सजे हैं ।।
घट-घट में श्रीराम. . . . . रग-रग में . . . . . .
विचारधारा अभिसृत करने ,
देश काल सुसंस्कृत करने ,
परिष्कृति का बीड़ा धरने,
कमर कसी, माथा चमके है ।।
घट-घट में श्रीराम. . . . . रग-रग में . . . . . .
बाधाओं को खंडित करने ,
त्रिभुवन महिमा मंडित करने ,
प्रत्यंचा की टंकार मात्र से,
असुरों ने स्व प्राण तजे हैं ।।
घट-घट में श्रीराम. . . . . रग-रग में . . . . . .
मुश्त बाँध अब शपथ उठाएँ ,
प्राण जाए पर वचन न जाए ,
ऐसे रामराज्य को लाने ,
रामलला के धाम सजे हैं ।।
घट-घट में श्रीराम बसे हैं ।
रग-रग में श्रीराम बसे हैं ।।
-प्रखर
मित्र क्या है ??? , परछाई है , हाथ थाम ले , जब आगे खाई है ।। आईना है दुर्गुणों को दिखलाने में , माहिर है उलझनों को सुलझाने में ।। स्पष्टवादिता का जीता जागता उदाहरण है , अमूल्य है आपके लिए, भले दुनिया के लिए साधारण है ।। जश्न में चार चांद लगा देता […]
“अमूल्य मित्र “
विक्षोभ की मिसाल हूँ , गति में बेमिसाल हूँ । (विक्षोभ =Disturbance)
जो उठाई आँख तुमने, देश की तरफ यदि
याद रखोगे सदा , की रूप में विक्राल हूँ ।।
मैं राफाल हूँ …. .. राफाल हूँ !!!
शरीर मेरा वायुगतिकीय, यूँ ही बना नहीं ,(Aerodynamic Body)
वर्चस्व मेरा हवा में, ज़रा भी डिगा नहीं, (Air Supremacy)
आकाश से ही झांक लूँ , छायाचित्र व स्थान सही ।। (Aerial reconnaissance)
सैनिकों सा वीर हूँ , दुश्मनों का काल हूँ,
मैं राफाल हूँ ….. .. राफाल हूँ !!!
सतह का मोहताज नहीं , यदि दुश्मन आये बाज नहीं,
जल थल और नभ पर , प्रक्षेपणास्त्र पहुँचे सटीक, (anti-ship strike)
वायु सेना की पसंद और प्यारा सा लाल हूँ ।।
रणभूमि पहुंच कर , मचाता भौकाल हूँ ,
मैं राफाल हूँ … .. राफाल हूँ !!!
-प्रखर
–प्रखर
वो गुज़रता हुआ समस्या से,
हल ढूँढता पूरी तपस्या से,
भावी अनिश्चितता में जी रहा,
चिंता चुनौतियों के कड़वे प्याले पी रहा ।।
सिलसिला ये रुकने का नाम ले अगर,
ठहर कर सोचने का काल हो मगर,
सुलझ पाएगा कब चुनौतियों का फंदा ??
जब समस्याओं को कतई ना बनाएँगे प्रमुख मुद्दा ।।
कपाल पर आते हुए बोझ का क्या वेग है !
छुपे कंटकों से लबालब भरी हुई यह सेज है,
घने अंधियारे में यदि वो भाग सकता तेज़ है,
निस्तार कर जाएगा सरहद, देखना यह शेष है ।।
देखना जो शेष है, उस पर विवश क्यूँ हो रहा,
देवव्रत सम बाण की शैया पे कब से सो रहा,
आत्मभू तू है नहीं फिर क्यूँ स्वयं से मर मिटे,
डगमगा जाएँगी अड़चन, उत्साह यदि नित बो रहा ।।
-प्रखर
मैं कैद हूँ , मैं कैद हूँ
चार दिवारी में ही
बस दो रोटी से ही
ओढ़े हूँ चदरी को
घनी काली बदरी को, देख
प्रतिपल मुस्तैद हूँ ।।
मैं कैद हूँ ……
ये कैद तनिक है विचित्र
निज भवन इसका चरित्र
बहिर्गमन जब तक निषेध,
विषाणु को रहे खेद ।।
इस वैश्विक महामारी में
लक्ष्य मैं अभेद्य हूँ
मैं कैद हूँ …….
जो कैद ना हुआ अब भी
तो खोएगा तू खुद को ही
खाक छान मारी , किन्तु
इस विषाणु का तोड़ नहीं ।।
इस राक्षसी चक्रव्यूह में,
मैं नन्हा सा छेद हूँ
मैं कैद हूँ , मैं कैद हूँ ।।
–प्रखर
शिव जी के विष पान के चर्चे
कण्ठ से ऊपर, कण्ठ से नीचे।
भली भांति शिवत्व को पहचानें
विष पान मर्म आओ जानें ।।
कण्ठ से ऊपर उगला जाए
ताण्डव कर कर पगला जाए।
कण्ठ से नीचे निगला जाए
बर्फ सरीखा पिघला जाए ।।
यह जीवन भी कुछ विष सा है
इसे ना पीने की लिप्सा है।
यदि इसका कोई विकल्प न हो
फिर क्या तुम में तितिक्षा है ???
तितिक्षा ही शिव का कण्ठ है
जो ना समझा वो लंठ है
जन कल्याण हेतु जो आहूत होता
शिव भक्त वही निशंक है ।।
— प्रखर ‘प्रज्ञ’
गति समय की निश्चित है
त्वरण शून्य को प्रवृत्त है
बल कैसे हो अशून्य
द्रव्यमान अब चिंतित है
टकरा रहा यहाँ वहाँ
आवेग नहीं पर किंचित है
घूर्णन करता वह हर घड़ी
परिस्थिति ज्यों की त्यों खड़ी
पीठ दिखाता स्थिरता को
ना ही वर्तन विपरीत है
बुद्धि लगाई द्रव्यमान ने
कहाँ रह गयी कमी ज्ञान में
वेग चाहिए, ना कि गति
अदिश- सदिश का खेल है विकसित
परिस्थिति से द्रव्यमान परस्पर
सापेक्षता क्यों ही ढूँढता
दिशाहीन थी चेष्टा प्रतिपल
आकर्षण भी नहीं था प्रबल
(Above stanza is all about theory of relativity)
(गति=Speed), (त्वरण=acceleration), (बल=Force), (द्रव्यमान=Mass), (टकरा=Collision), (आवेग=Impulse), (घूर्णन=Rotation), (परिस्थिति=Goal ,Success etc), (स्थिरता=Stagnation), (वर्तन=Revolution), (द्रव्यमान=Mass), स्थिरता (Stagnation), वर्तन (Revolution), (ज्ञान=Concepts), (वेग=Velocity), (गति =Speed), (अदिश=Scalar), (सदिश= Vector), (सापेक्षता=Relativity),
(चेष्टा प्रतिपल आकर्षण प्रबल = continous mutual force of attraction between two bodies, according to theory of relativity)
In this poetry समय is not time, it is the circumstances/ Situations anybody going through.
अनिश्चितता का दौर है
अंधेरा घनघोर है
विवशताओं की होड़ है
पग पग पर मोड़ है ।।
चल रहा मैं रुक रुक कर
रखता कदम फूँक फूँक कर
तब भी धँस जाता हूँ
दल दल में फँस जाता हूँ
संभावनाएँ कह रहीं
“मैं आते आते रह गई”
“जो तुमको बचा पाती”
“अगर मगर में ढह गई” ।।
अब प्रयास और प्रबल होगा
सुदृढ़ मनोबल होगा
देखता हूँ मैं भी अब
किसमें रोकने का बल होगा ।।
अब मैं अनुभवहीन नहीं
बिल्कुल भी दीन नहीं
प्रचंडता इरादों में
शक्तियाँ भी क्षीण नहीं ।।
गांडीव को उठाकर अब
लक्ष्य भेदता चुन चुन
सारथी मेरी आत्मा
मन मेरा स्वयं अर्जुन ।
✍️© प्रखर
ज़िन्दगी ये एक सफर ।
अगर मगर की डगर ।।
ध्यान से चला कोई
अनजान बन चला कोई
अभिमान से कोई चला
तो कोई स्वाभिमान से ।।
कोई रुका आलस्य में
कोई थका प्रमाद में
कुछ अकेले ना चल सके
थमे किसी की याद में ।।
जो थम गए तो चौपट है
मंज़िल का बन्द चौखट है
मुड़ गए हो अब जब तुम
निराशा की नौबत है ।।
किंचित खुश हो कर के
आगे बढ़ ठोकर से
अग्रसर जो हो जाये
कल्पवृक्ष बो जाए ।।
-प्रखर
ज़िन्दगी ये बर्फ सी
अनिश्चितता पर तर्क सी ।।
पिघल रही घड़ी घड़ी
कल की फिक्र क्यों पड़ी ।।
बर्फ यह तो ठोस है
जैसे हमारा रोष है ।।
कहता तापमान इसे
पिघलने में ही मोक्ष है ।।
जो पिघल रहा वो कह रहा
“मैं पानी, मस्त बह रहा ” ।।
क्योंकि, बहना ही सत्य है
ठहरना जड़त्व है ।।
समझें इस आशय को
भीतर के महाशय को ।।
क्यों करें चिंता, मानो
ठहरा जलाशय हो ।।
कर जाएँ, कह जाएँ
चाहतें इस जीवन की
अधूरी ना रह जाये ।।
– प्रखर