
मैं कैद हूँ , मैं कैद हूँ
चार दिवारी में ही
बस दो रोटी से ही
ओढ़े हूँ चदरी को
घनी काली बदरी को, देख
प्रतिपल मुस्तैद हूँ ।।
मैं कैद हूँ ……
ये कैद तनिक है विचित्र
निज भवन इसका चरित्र
बहिर्गमन जब तक निषेध,
विषाणु को रहे खेद ।।
इस वैश्विक महामारी में
लक्ष्य मैं अभेद्य हूँ
मैं कैद हूँ …….
जो कैद ना हुआ अब भी
तो खोएगा तू खुद को ही
खाक छान मारी , किन्तु
इस विषाणु का तोड़ नहीं ।।
इस राक्षसी चक्रव्यूह में,
मैं नन्हा सा छेद हूँ
मैं कैद हूँ , मैं कैद हूँ ।।
–प्रखर
बहुत अच्छी रचना।
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धन्यवाद 🙏🙏☺️
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Kya baat hai
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